ऐ कलम मुझे माफ़ कर
जो मैं तुम्हें छोड़ कर
इस संभ्रम दुनिया में आया
सोचा छोड़ कर तुझे मैं जी लूँगा
इस दुनिया में
पर यहाँ आकर समझ में आया
कि ये पेचीदगी शायद
मुझसे सुलझेगी नहीं
ये एक ऐसी अत्यंत अनंत डोर है
जो खुद से उलझती जाती है
इसे सुलझाने की कोशिश में
मैं खुद ही इसमें उलझ कर रह गया
खुल तो नहीं पायीं ये सारी उलझनें
पर अब इस रिश्ते नाते के बंधन को
तोड़ कर आया हूँ मैं, तेरे शरण में
दुबारा पुनः एक बार
दे दो मुझे मेरी उँगलियों पर फिर से
वो काली स्याही के निशान
वो कोरे कागज के पन्ने
और किताबों की बारात
सजाना चाहता हूँ मैं फिर अपनी दुनिया
इसी शब्दों के बीच में
बेवकूफ था मैं जो इसकी बादशाहत
छोड़कर गया था इस निष्ठूर संसार में
इसलिए तेरे शरण में
लौट आया मैं सुमन , ऐ-- 'कलम'
----------*----------