जब देखा एक पगली को तो
खुद पर रो दिया था मैं
ये जीवन उसके लिए क्या है
न उसका कोई वर्तमान है
ना ही कोई भविष्य है
हाँ उसका एक अतीत जरुर है
जो वो अब शायद उसे याद नहीं
उसके भी कोई घर वाले होंगे
अपने आँगन में उसने भी खेला होगा
मेहंदी लगे उसके हाथों में
ऐसा सपना उसने भी देखा होगा
आज उसे ना उस आँगन का होश है
ना ही क्यूँ जी रहे हैं इसकी कोई आस है
उसका जीवन भी एक पल में ही बदला होगा
एक पल में ही उसका जीवन कालिख से रंगा होगा
जब उस पगली को देखा तो
खुद पर रो दिया था मैं
मैंने आईने में खुद को फिर देखा
तो ये ख्याल मेरे अन्दर कौंधा
ये आइना क्या सही में सच्चाई बतलाता है
हाँ बतलाता तो है
जीवन की वो सच्चाई जो हम भूल जाते हैं
कि एक चोट की देर है ये भी बिखर जायेगा
इस भंगुर आईने की तरह....
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