Friday, 13 July 2012

"बेजान गुलशन..!!"


वो कहते हैं  कि अब वहां विराना होता है
पहले जहाँ कभी महफिल सजती थी
महखाने से भी ज्यादा जहाँ शोर होता था
वहां अब शमशान से भी ज्यादा खामोशी रहती है 
गवाह हैं वहां की दीवारों में कैद आवाजें 
कि कभी हम वहां गुनगुनाया करते थे 
हवाएं भी चलती थी, तो गीत गाती सी
अब सन्नाटा संग लिए कानो से गुजरती है
खिड़की से झांकती तो अभी भी हूँ
पर तुम नहीं दिखते हो रास्ते पर 
फूल तो खिलते हैं गुलशन में 
पर वो कहती है ----- 
खुशबू फिजाओं से गायब है 
आ जाओ तुम फिर से यहाँ 
कि रह-रह कर तेरी याद आती है
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"हक़...!!!"

 तुम जो अगर, मुझ पर प्यार से.... अपना एक हक़ जता दो  तो शायरी में जो मोहब्बत है,  उसे ज़िंदा कर दूँ....  हम तो तेरी याद में ही जी लेंगे ... तु...