जाने कहाँ से चले थे हम
आज यहाँ तक आये हैं
मंजिल तो सभी का एक ही है
तो फिर क्यों
एक दुसरे से दौड़ लगाये हैं
बस इस जिंदगी भर का साथ है
ऊपर न भाई है, न कोई बाप है
मिट जाए जो यहाँ से वो आप हैं
पीछे रह जाए जो वो आपकी याद है
आप मानने को जो भी मानो
इश्वर मानो या अल्लाह मानो
ऊपर कौन बैठा है
ना तुम्हें पता, ना हमें पता
जानवर हमें देखते हैं
बस एक आदमजात इंसान की तरह
तो फिर हम क्यों--
एक दुसरे को देखते हैं
हिन्दू की तरह या मुसलमान की तरह
ऐसे धर्म को क्या मानना
जो हिंसा करने को सलाह दे
मानो तो इंसानियत को मानो
जो हर दूरी को मिटा दे
आज यहाँ तक आये हैं
मंजिल तो सभी का एक ही है
तो फिर क्यों
एक दुसरे से दौड़ लगाये हैं
बस इस जिंदगी भर का साथ है
ऊपर न भाई है, न कोई बाप है
मिट जाए जो यहाँ से वो आप हैं
पीछे रह जाए जो वो आपकी याद है
आप मानने को जो भी मानो
इश्वर मानो या अल्लाह मानो
ऊपर कौन बैठा है
ना तुम्हें पता, ना हमें पता
जानवर हमें देखते हैं
बस एक आदमजात इंसान की तरह
तो फिर हम क्यों--
एक दुसरे को देखते हैं
हिन्दू की तरह या मुसलमान की तरह
ऐसे धर्म को क्या मानना
जो हिंसा करने को सलाह दे
मानो तो इंसानियत को मानो
जो हर दूरी को मिटा दे
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मैं क्या बोलूँ अब....अपने निःशब्द कर दिया है..... बहुत ही सुंदर कविता.
ReplyDeleteगजब कि पंक्तियाँ हैं ...
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना.... अंतिम पंक्तियों ने मन मोह लिया...
बेहतरीन रचना………………यही तो आज हर दिल चाहता है।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर शब्द, अनुपम प्रस्तुति ।
ReplyDeleteSuuuuuperB!!! especially relevant in view of the present babri masjid verdict
ReplyDeleteआप सबो का शुक्रिया..
ReplyDeleteउम्मीद है आगे भी आप इस ब्लॉग पर आते रहेंगे..