है शुक्र उस मुखड़े का,
जिसकी याद की तपिश से,
इतना निखर गया हूँ मैं !
जिस मुखड़े को देख --
मुस्कुराता था मैं....
नज़रों की एक टक्कर से ही..
सिने में हलचल होती थी !
अब तो उस मुखड़े की याद से ही..
आखें भर आती हैं---
पहले जिसे अपना कहने में ...
कोई संकोच ना था ...
ज़िन्दगी कैसे जियें ---
इसका भी होश ना था...
बस उसके साथ बैठे हुए,
वक़्त गुजर रहा था !
है शुक्र कि उसकी तन्हाई ने...
मुझे जीना सिखा दिया !
अब हर मुखड़े को देख मुस्कुराता हूँ मैं..
कि उसने मुझे अब ---
खुद से प्यार करना सीखा दिया ..!!
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"हक़...!!!"
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सुक्र=शुक्र
ReplyDeleteबढ़िया है.
thik hai Sameer ji main use sudhar deta hun...
ReplyDeleteDhanyawaad.. aapke comments ke liye...